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शिव पूजन का प्रारम्भ तथा महत्व | Shiv Pooja ka Prarmbh and Mahatva

शिव पूजन का प्रारम्भ तथा महत्व

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शिव पूजन का प्रारम्भ तथा महत्व

विश्व को चेतना देने के लिए ही शिव को सर्वशक्ति मान संसार का रचयिता माना गया है। शिव अनादि अनंत, नित्य, निर्विकार, अज, सर्वोपरि तथा सनातन देव हैं। इनकी तुलना किसी अन्य देवता से हो ही नहीं सकती यहां तक कि सृष्टि की रचना करनेवाले ब्रह्मा भी शिव की आराधना करते हैं। शिव ही अविनाशी, सर्वगुणाधार, सर्वज्ञ हैं, जो मंगलमय है वही शिव हैं। सुख समृद्धि और संपन्नता उसी की देन है। विष्णु ने जब राम का अवतार लिया तो शिव की ही आराधना किया इन्हें ही पूज्य माना। उसी प्रकार जब कृष्ण धरती पर आये तो उन्होंने शिव को ही सर्व व्यापक बतलाया।

कैलाश पर्वत के शिखर पर भगवान शंकर ध्यानमग्न तप में लीन थे। देवी पार्वती उनके पांव के निकट बैठी उन्हें एकटक देखती रहने के उपरांत उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए याचना किया-
“हे दीनों पर दया करनेवाले मेरे इष्टदेव प्रभु, दया के स्वामी, कृपालु क्षणभर के लिए मेरी विनती पर ध्यान दीजिए। आपका एक भक्त इस पर्वत के नीचे शिलाखंड पर बैठा कठोर तपस्या में लीन है। वह बर्फ से ढंका जा रहा है केवल चेहरा भर दिखलाई पड़ रहा है फिर भी आप उस पर प्रसन्न होकर उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण नहीं करते, ऐसा क्या कारण है प्रभु?”

भगवान शंकर ने आंख खोलते हुए हँस कर कहा, “हे प्रिय ! तुम्हारी बातें सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो तुमने मुझ पर अनायास कटाक्ष किया हो। सत्य तो यह है जो भी मुझे ह्रदय से, शुद्ध भक्ति भाव से स्मरण करता है मैं उस पर अवश्य प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार करता हूँ, किंतु जिसका मन केवल स्वार्थपर्ता की ओर है और उसमें भक्ति भाव का समावेश ही नहीं है, वह मुझे अपने ज्ञान चक्षु से नहीं देखता वह मुझे कदापि प्राप्त नहीं कर पाता। जिस व्यक्ति के प्रति ममता, करुणा से तुम्हारा कोमल हृदय व्याकुल है उसमें लेश मात्र भी मेरे प्रति भक्ति की साधना और विश्वास नहीं है। वह ऐसी निरर्थक धारणा बनाकर कोसने लग जाता है कि उसका इष्टदेव अर्थात् मैं कितना कठोर हूं कि उसकी आराधना पर ध्यान नहीं देता। वह सोचता है। आखिरकार मैं पत्थर का लिंग हूं तो मेरा हृदय भी पत्थर ही होगा इसलिए क्यों न मेरी आराधना छोड़कर किसी दूसरे देवी-देवता से अपनी इच्छित भावना की कामना करें। इसी प्रकार वह सभी देवी- देवता को कोसता रहेगा। जब उसके हृदय से यह दुर्भावना निकल जाएगी, उसमें सत्य भक्तिभावना का समावेश होगा वह अपनी इच्छा को भूलकर मेरा स्मरण करेगा तो मैं उसकी मनोकामना अवश्य पर्ण करूंगा।”

“तो क्या वह भक्त थोड़ी देर में ही पूरे बर्फ से नहीं ढंक जाएगा? फिर वह जीवित कैसे रहेगा?’

“प्रिय । उसके चारों ओर जो बर्फ जमी है वह मेरी माया है। जिसका उसके शरीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, वही बर्फ जब उसे पूर्णतया ढंक लेगा तब उसे ज्ञान प्राप्ति होगी, तब वह मुझमें आस्था रखकर मेरा रूप देखेगा और अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त कर लेगा। बर्फ गल जाएगी वह मुक्त हो जाएगा। तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं” इतना कहकर पुन: शंकर भगवान ध्यान मग्न हो गये।

जगत सृष्टिकर्ता प्रभु शिव ही हैं और वही विनाशकारी शिव भी हैं। जो अपनी बनाई सृष्टि का संहार कर देते हैं-

‘ॐ नमः शंभवाय च मयाभवाय च’

संहार और सृष्टि प्रकृति का नियम है, जो सृष्टि करता है वही संहार भी करता है। यदि संहार न होगा तो सृष्टि रूक जाएगी। फिर तो जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु का प्रश्न ही नहीं उठेगा वह अमर कहलाएगा जो अमर हो गया तो मृत्यु का कोई भय न होगा। वह पाप की ओर बढ़ता जाएगा फिर उसका संहार कैसे होगा?

जब शिव संहार ही नहीं करेंगे तो ब्रह्मा सृष्टि किसकी करेंगे? इसलिए जीवन मरण का चक्र संसार में चलता रहेगा।

शिव ही सत्य है ! शिव ही सुंदर है सभी देवता शिव के आश्रित हैं, शिव आराधना ही श्रेष्ठ है। शक्ति ही शिव की इच्छायुक्त अभिशक्ति है।

एको हि रुद्रा न द्वितीयाय।
तस्युर्य इमाल्लोकानीशत ईशनीभिः ॥
एक ही रुद्र है जो कि सभी को अपने अधिकार में रखता है वही ईश्वर है, वही रुद्र सर्वशक्ति मान है।

एत एव त्रयो देवा एत एव त्रयोऽग्रयः ।
एत एव त्रयो वेदा एत एव त्रयोगुणाः ॥
तीन देव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश, यज्ञ की तीन अग्नियां- आहवनीय, गार्हपत्य, क्रव्यादि तीन गुण- सत्व, रज, तम ये सब एक ही तत्व पर आधारित हैं।
भौतिक सृष्टि, चेतन सृष्टि, स्थिति पालन कर्म और वासना का वर्णन, प्रलय और मोक्ष का निरुपण, भगवान और देवताओं का पृथक- पृथक कीर्तन ये ही पुराणों के वर्ण्य विषय हैं।
शिव की शक्ति का प्रचार करके लोगों में परमार्थ की भावनाएं जागृत कराना शिव पुराण का उद्देश्य रहा है, दूसरे देवताओं को जहां मिष्ठान, पकवान, व्यंजन आदि की आवश्यकता हुई, वहां शिव बिल्वपत्र, धतूरा जैसे सामान्य पूजन सामग्री से प्रसन्न हो गये। इस प्रकार शिव शंकर भोलेनाथ का चरित्र परम उदार, परमार्थ, परायण और अपरिग्रही प्रमाणित होता है। इसीलिए ऐसे पूज्य इष्टदेव की देवता और दानव पूजा करें तो उसी कारण वह सर्वशक्तिमान शिव कहलाता है।

कभी-कभी लोगों में भ्रम पैदा होता है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश में, सर्वोपरि कौन है?
शिव पुराण के अनुसार सृष्टि पूर्व, जगत जलमय था, हर ओर अंधकार व्याप्त था। उस जल से जो तेज निकला वह परमेश्वर के ज्योतिर्लिंग रूप में जल में प्रकट हुआ। वही परमेश्वर परम शिव कहे गये। उस लिंग से एक महाशक्ति उत्पन्न हुई जिसे प्रकृति और महामाया नाम दिया गया।

उन दोनों से महाविष्णु की सृष्टि हुई और विष्णु की नाभि से महापद्म उत्पन्न हुआ जिसके पांच मुख थे ब्रह्मा कहलाया। उन्हीं के साथ कमल पर सरस्वती का जन्म माना गया। ब्रह्मा ने चारों ओर जलमय देखा तो ओंकार का जप किया जिससे विष्णु ने उन्हें दर्शन दिया। ब्रह्मा ने पूछा, “तुम कौन हो?” विष्णु ने उत्तर दिया, “मैं विष्णु हूं, तुम ब्रह्मा हो मेरी नाभि उत्पन्न हुए हो। इसलिए तुम सृष्टि की रचना करो। “ब्रह्मा ने अपने को विष्णु से बड़ा माना इसलिए उन्होंने घमंड में आकर कहा, “तुम मुझे आदेश देने वाले कौन हो?”

दोनों की वार्ता सुनकर परमेश्वर ज्वालालिंग के रूपमें ब्रह्मा और विष्णु के मध्य प्रत्यक्ष हुए। दोनों ने उस ज्वाला लिंग का आदि और अंत पता लगाना चाहा किंतु दोनों निराश हुए तब ज्वालालिंग से ध्वनि निकली, ‘हे ब्रह्मा! तुम सृष्टि की रचना करने हेतु विष्णु की नाभि से निकले हो तुम्हें विष्णु की वाणी का अनुपालन करना होगा। तुम सृष्टि की रचना करो।” इतना कहकर ज्वालालिंग जल में लुप्त हो गया। ब्रह्मा के चारों ओर केवल जल था उसी समय एक अंडाकार लिंग उनके पास तैरता हुआ पहुंचा उसमें एक ओर सुराख से ॐ शब्द निकला। ब्रह्मा पता लगाने उस छेद के द्वारा अंदर चले गये। पुनः जब निकले तो उनका केवल चार मुख था वह अंडाकार लिंग दो भागों में बंट गया। एक नीचे के भाग पर पृथ्वी बनी ऊपरी भाग पर गगन मंडल आकाश के रूप में बदल गया।

जल सूखता गया। फिर ब्रह्मा ने सृष्टि रचना शुरू कर दिया। उसी समय महान तेज के साथ शिव प्रकट हुए। शिव ने बतलाया, “मैं शिव हूं, रुद्र हूं, तुम जो सृष्टि रचोगे उसका पोषण और संहार में करुंगा। मेरे प्रकाश से सबको जीवन मिलेगा। इस प्रकार परमेश्वर शिव के रूप में उत्पन्न हुए। ब्रह्मा, विष्णु ने शिव को ईश्वर माना।

शिव का पार्षद भूत प्रेत ही हैं। एक बार जब पार्वती का शिव से विवाह न करने की चर्चा की गयी तो पार्वती ने रुष्ट होकर समझाने वाले को अप्रिय माना। वहां पार्वती का शिव के प्रति अगाध प्रेम और मोह प्रकट करता है कि उन्हें शिव की निंदा सुनना पसंद नहीं। श्रद्धा रखनेवाली, भूतनाथसे शुद्ध प्रेम करने वाली पार्वती अपने इष्ट देव की बुराई नहीं सुनना चाहती।

जहां-जहां शिव की प्रतिमा का वर्णन आता है वहां केवल शिवलिंग ही प्राप्त होता है। जैसे सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्री शैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में अमरेश्वर, हिमालय में केदार, डाकिनी में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ, गौतमी तट पर त्रयंवक, चिताभूमि में बैद्यनाथ, दारुकवन में नागेश, सेतुबंध में रामेश्वर, शिवालय में घुश्मेव, हरिद्वार के कनखल में दक्षेश्वर महादेव आदि, भगवान के समस्त लिंगों की संख्या बतला सकना असंभव होगा। संसार में उनका पूर्ण रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता। अस्तु समस्त भूमंडल लिंगमय शिवमय ही है हर तीर्थ स्थान में शिवलिंग ही पर्याप्त हैं। भगवान शिव का लिंग पृथ्वी, स्वर्ग पाताल सर्वत्र विद्यमान हैं और देव-असुर तथा मनुष्य द्वारा पूजित हैं।

देवी पार्वती शिव की आराधना उपासना में लीन थी। भगवान शंकर ब्रह्मचारी ब्राह्मण रूप धारण कर उनकी परीक्षा लेने गये। वृद्ध ब्राह्मण का शरीर धारण कर अपने तेज के प्रकाश से प्रज्वलित तथा मन से प्रसन्न दंड तथा छत्र धारणकर पार्वती के निकट तपोवन में पहुंचे। पद चाप से पार्वती की तंद्रा भंग हुई, ध्यान टूटा, सम्मुख अद्भुत, तेजस्वी, रोमयुक्त अंगोंवाले परमशांत रूपकारी युक्त उस ब्राह्मण का दर्शन किया। पार्वती ने ब्रह्मा की ब्रह्मचर्य से युक्त, वृद्ध और जटा एवं कमंडल धारण किये हुए देखकर अत्यंत प्रीतिपूर्वक अर्चना किया और समुचित सत्कार किया।

फिर पार्वती ने प्रश्न किया, “हे वेद ज्ञाताओं में परमश्रेष्ठ ब्राह्मण देवता! आप इस ब्रह्मचारी रूप मैं कौन हैं, आपका यहाँ आने का अभिप्राय क्या है जो इस वन को प्रकाशमान कर रहे हैं ?

शिव ने उत्तर दिया, “महादेवी, में स्वेच्छा से विचरण करता तपस्वी ब्रह्मचारी, दूसरों की मनोकामना पूर्ण करता हूं, मुझसे आपकी यह दशा देखी नहीं जाती। इतनी कोमलांगी, स्वरूपा शरीर धारण करनेवाली, किस उद्देश्य से इस भयावह निर्जन वन में जितेंद्रियों के तुल्य कठिन तप कर रही हो ?”

मेरे इस शरीर का जन्म गिरिराज हिमवान के घर में हुआ इसके पूर्व मैं प्रजापति दक्ष की आत्मजा थी और भगवान शंकर की पत्नी हुई थी। परंतु पति की बात न मानकर मायके में पिता द्वारा अपमानित होकर अग्रिमें अपना शरीर त्याग दिया। इस जन्म में परम महान पुण्य से प्राप्त भगवान शिव मुझे त्यागकर कामदेव को भस्म करके चले गये। शिव के त्याग से अति लज्जित होकर बहुत ही दुःखी हूं, उन्हें प्राप्त करने हेतु तप कर रही हूं। मेरी तपस्या मन-वचन और कर्म द्वारा साक्षात् शिव स्वरूप पति देव को पाने के लिए है। अन्य किसी देवता में मेरी कोई आस्था नहीं है।”

शिव ने कहा, “समस्त देव, ब्रह्मा और विष्णु को त्यागकर एक शिव को ही अपना पति बनाने की इतनी कठोर तपस्या करना व्यर्थ है। मैं तो रुद्र को जानता हूं, बैल पर सवारी करता हैं, विकृत आत्मावाला, जटाधारी, अकेला रहनेवाला परम भक्त, ऐसे वैरागी में मन लगाना शोभा न देगा। उसका स्वरूप तुम्हारे रूप सौंदर्य के विपरीत हैं। मुझे तो अच्छा प्रतीत नहीं होता।” इस प्रकार शिव ने अपनी अनेक प्रकार से निंदा की।

पार्वती ने उग्र रूप धारण करके गुस्से में कहा, “हे ब्राह्मण, तू शिव की निंदा करता है इसलिए मार देने योग्य है। हे मूर्ख, तू बड़ा धूर्त है, कैसे ब्रह्मचारी बनकर यहां आ गया है? तूने भगवान शिव की निंदा की है इसलिए मुझे क्रोध आ गया, तू शंकर से सर्वथा बहिर्मुख है। तू ब्राह्मण कहने योग्य नहीं। तूने असत्य कहा कि तू शिव को जानता है। शिव तो सर्वोपरि सबके स्वामी हैं। भगवान शिव का अपमान करने वाला सबसे बड़ा पापी होता है। तू यहां से तुरंत चला जा अन्यथा मैं ही किसी दूसरे स्थान पर तपस्या करने चली जाऊंगी।”

इस पर भगवान शिव शंकर ने अपने उसी रूप को दिखलाया जिसका ध्यान पार्वती अपने मन में बसाए थी। भगवान शिव ने कहा, “हे शिवे, तुम्हें अब कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है। मैंने तो तुम्हारी परीक्षा लिया था। तुम्हारे दृढ़ भक्ति से अति प्रसन्न हूं।” यह कहकर शिव ने पार्वती को अंगीकार कर लिया।

शिव को सप्तमुखी कहा गया है जो ईश्वरीय रूप कहलाता है। तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव, ईश्वर, नीलकंठ आदि स्वरूप हैं। भगवान असंख्य रूपों मे प्रकट होते हैं। इसलिए उसे असंख्य नामों से संबोधित किया जाता है।

जिस प्रकार आकाश के सितारे दिन में नहीं दिखलाई पड़ते उसी प्रकार भगवान शंकर का रूप कोई नहीं देख सकता। उस ईश्वर को देखने पाने हेतु माया और अहंकार का त्याग कर भगवान शंकर का स्मरण करना होगा। किसी न किसी रूप में वे अपने भक्त पर प्रसन्न होते हैं। शिवलिंग केवल एक शिलाखंड नहीं बल्कि शंकर का प्रारूप है जो हर शिवलिंग में व्याप्त रहता है। समस्त कामनाओं का त्याग कर शिवपूजन करें तो साक्षात् शिव पद की प्राप्ति होगी।

इति।

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